लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय
41
प्रभु सेवक ने
तीन वर्ष अमेरिका
में रहकर और
हजारों रुपये खर्च करके
जो अनुभव और
ज्ञान प्राप्त किया
था, वह मि.
जॉन सेवक ने
उनकी संगति से
उतने ही महीनों
में प्राप्त कर
लिया। इतना ही
नहीं, प्रभु सेवक
की भाँति वह
केवल बतलाए हुए
मार्ग पर ऑंखें
बंद करके चलने
पर ही संतुष्ट
न थे; उनकी
निगाह आगे-पीछे,
दाएँ-बाएँ भी
रहती थी। विशेषज्ञों
में एक संकीर्णता
होती है, जो
उनकी दृष्टि को
सीमित कर देती
है। वह किसी
विषय पर स्वाधीन
होकर विस्तीर्ण दृष्टि
नहीं डाल सकते,
नियम, सिध्दांत और
परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि
को फैलने नहीं
देते। वैद्य प्रत्येक
रोग की औषधिा
ग्रंथों में खोजता
है; वह केवल
निदान का दास
है, लक्षणों का
गुलाम; वह यह
नहीं जानता कि
कितने ही रोगों
की औषधिा लुकमान
के पास भी
न थी। सहज
बुध्दि अगर सूक्ष्मदर्शी
नहीं होती, तो
संकुचित भी नहीं
होती। वह हरएक
विषय पर व्यापक
रीति से विचार
कर सकती है,
जरा-जरा-सी
बातों में उलझकर
नहीं रह जाती।
यही कारण है
कि मंत्री-भवन
में बैठा हुआ
सेना-मंत्राी सेनापति
पर शासन करता
है। प्रभु सेवक
से पृथक हो
जाने से मि.
जॉन सेवक लेशमात्रा
भी चिंतित नहीं
हुए थे। वह
दूने उत्साह से
काम करने लगे।
व्यवहार-कुशल मनुष्य
थे। जितनी आसानी
से कार्यालय में
बैठकर बहीखाते लिख
सकते थे, उतनी
ही आसानी से
अवसर पड़ने पर
एंजिन के पहियों
को भी चला
सकते थे। पहले
कभी-कभी सरसरी
निगाह से मिल
को देख लिया
करते थे, अब
नियमानुसार और यथासमय
जाते। बहुधा दिन
को भोजन वहीं
करते और शाम
को घर जाते।
कभी रात को
नौ-दस बजे
जाते। वह प्रभु
सेवक को दिखा
देना चाहते थे
कि मैंने तुम्हारे
ही बलबूते पर
यह काम नहीं
उठाया है; कौवे
के न बोलने
पर भी दिन
निकल ही आता
है। उनके धान-प्रेम का आधार
संतान-प्रेम न
था। वह उनके
जीवन का मुख्य
अंग, उनकी जीवन-धार का
मुख्य-श्रोत था।
संसार के और
सभी धंधे इसके
अंतर्गत थे।
मजदूरों और कारीगरों
के लिए मकान
बनवाने की समस्या
अभी तक हल
न हुई थी।
यद्यपि जिले के
मजिस्टे्रट से उन्होंने
मेल-जोल पैदा
कर लिया था,
चतारी के राजा
साहब की ओर
से उन्हें बड़ी
शंका थी। राजा
साहब एक बार
लोकमत की उपेक्षा
करके इतने बदनाम
हो चुके थे
कि उससे कहीं
महत्तवपूर्ण विजय की
आशा भी अब
उन्हें वे चोटें
खाने के लिए
उत्तोजित न कर
सकती थी। मिल
बड़ी धूम से
चल रही थी,
लेकिन उसकी उन्नति
के मार्ग में
मजदूरों के मकानों
का न होना
सबसे बड़ी बाधा
थी। जॉन सेवक
इसी उधोड़-बुन
में पड़े रहते
थे।
संयोग से परिस्थितियों
में कुछ ऐसा
उलट-फेर हुआ
कि विकट समस्या
बिना विशेष उद्योग
के हल हो
गई। प्रभु सेवक
के असहयोग ने
वह काम कर
दिखाया, जो कदाचित्
उनके सहयोग से
भी न हो
सकता था।
जब से सोफिया
और विनयसिंह आ
गए थे, सेवक-दल बड़ी
उन्नति कर रहा
था। उसकी राजनीति
की गति दिन-दिन तीव्र
और उग्र होती
जाती थी। कुँवर
साहब ने जितनी
आसानी से पहली
बार अधिकारियों की
शंकाओं को शांत
कर दिया था,
उतनी आसानी से
अबकी बार न
कर सके। समस्या
कहीं विषम हो
गई थी। प्रभु
सेवक को इस्तीफा
देने के लिए
मजबूर करना मुश्किल
न था, विनय
को घर से
निकाल देना,उसे
अधिकारियों की दया
पर छोड़ देना,
कहीं मुश्किल था।
इसमें संदेह नहीं
कि कुँवर साहब
निर्भीक पुरुष थे, जाति-प्रेम में पगे
हुए,स्वच्छंद, नि:स्पृह और विचारशील।
उनको भोग-विलास
के लिए किसी
बड़ी जाएदाद की
बिलकुल जरूरत न थी।
किंतु प्रत्यक्ष रूप
से अधिकारियों के
कोपभाजन बनने के
लिए वह तैयार
न थे। वह
अपना सर्वस्व जाति-हित के
लिए दे सकते
थे; किंतु इस
तरह कि हित
का साधान उनके
हाथ में रहे।
उनमें वह आत्मसमर्पण
की क्षमता न
थी, जो निष्काम
और नि:स्वार्थ
भाव से अपने
को मिटा देती
है। उन्हें विश्वास
था कि हम
आड़ में रहकर
उससे कहीं अधिाक
उपयोगी बन सकते
हैं, जितने सामने
आकर। विनय का
दूसरा ही मत
था। वह कहता
था, हम जाएदाद
के लिए अपनी
आत्मिक स्वतंत्राता की हत्या
क्यों करें? हम
जाएदाद के स्वामी
बनकर रहेंगे, उसके
दास बनकर नहीं।
अगर सम्पत्तिा से
निवृत्तिा न प्राप्त
कर सके, तो
इस तपस्या का
प्रयोजन ही क्या?
यह तो गुनाहे
बेलज्जत है। निवृत्तिा
ही के लिए
तो यह साधाना
की जा रही
है। कुँवर साहब
इसका यह जवाब
देते कि हम
इस जाएदाद के
स्वामी नहीं, केवल रक्षक
हैं। यह आनेवाली
संतानों की धारोहर-मात्रा है। हमको
क्या अधिकार है
कि भावी संतान
से वह सुख
और सम्पत्तिा छीन
लें, जिसके वे
वारिस होंगे? बहुत
सम्भव है, वे
इतने आदर्शवादी न
हों, या उन्हें
परिस्थिति के बदल
जाने से आत्मत्याग
की जरूरत ही
न रहे। यह
भी सम्भव है
कि उनमें वे
स्वाभाविक गुण न
हों, जिनके सामने
सम्पत्तिा की कोई
हस्ती नहीं। ऐसी
ही युक्तियों से
वह विनय का
समाधाान करने की
विफल चेष्टा किया
करते थे। वास्तव
में बात यह
थी कि जीवन-पर्यंत ऐश्वर्य का
सुख और सम्मान
भोगने के पश्चात्
वह निवृत्तिा का
यथार्थ आशय ही
न ग्रहण कर
सकते थे। वह
संतान न चाहते
थे, सम्पत्तिा के
लिए संतान चाहते
थे। जाएदाद के
सामने संतान का
स्थान गौण था।
उन्हें अधिकारियों की खुशामद
से घृणा थी,
हुक्काम की हाँ
में हाँ मिलना
हेय समझते थे;
किंतु हुक्काम की
नजरों में गड़ना,
उनके हृदय में
खटकना, इस हद
तक कि वे
शत्रुता पर तत्पर
हो जाएँ, उन्हें
बेवकूफी मालूम होती थी।
कुँवर साहब के
हाथों में विनय
को सीधी राह
पर लाने का
एक ही उपाय
था, और वह
यह कि सोफिया
से उसका विवाह
हो जाए। इस
बेड़ी में जकड़कर
उसकी उद्दंडता को
वह शांत करना
चाहते थे; लेकिन
अब जो कुछ
विलम्ब था, वह
सोफिया की ओर
से। सोफिया को
अब भी भय
था कि यद्यपि
रानी मुझ पर
बड़ी कृपा-दृष्टि
रखती हैं, पर
दिल से उन्हें
यह सम्बंधा पसंद
नहीं। उसका यह
भय सर्वथा अकारण
भी न था।
रानी भी सोफिया
से प्रेम कर
सकती थीं और
करती थीं, उसका
आदर कर सकती
थीं और करती
थीं, पर अपनी
वधाू में वह
त्याग और विचार
की अपेक्षा लज्जाशीलता,
सरलता, संकोच और कुल-प्रतिष्ठा को अधिाक
मूल्यवान समझती थीं, संन्यासिनी
वधू नहीं, भोग
करनेवाली वधू चाहती
थीं। किंतु वह
अपने हृदयगत भावों
को भूलकर भी
मुँह से न
निकालती थीं। न
ही वह इस
विचार को मन
में आने ही
देना चाहती थीं,
इसे कृतघ्नता समझती
थीं।
कुँवर साहब कई
दिन तक इसी
संकट में पड़े
रहे। मि. जॉन
सेवक से बातचीत
किए बिना विवाह
कैसे ठीक होता?
आखिर एक दिन
इच्छा न होने
पर भी विवश
होकर उनके पास
गए। संधया हो
गई थी। मि.
जॉन सेवक अभी-अभी मिल
से लौटे थे
और मजदूरों के
मकानों की स्कीम
सामने रखे हुए
कुछ सोच रहे
थे। कुँवर साहब
को देखते ही
उठे और बड़े
तपाक से हाथ
मिलाया।